Sarhul Festival 2023: सरहुल उत्सव झारखंड Date
प्रकृति पर्व सरहुल आदिवासियों का वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक प्रमुख पर्व है। पतझड़ के बाद पेड़ पौधों की टहनियों पर हरी हरी पत्तियां जब निकलने लगती है। आम के मंजर तथा सखुआ और महुआ के फूलों से जब पूरा वातावरण सुगंधित हो जाता है तब आदिवासियों द्वारा यह प्रकृति पर्व सरहुल मनाया जाता है। यह पर्व प्रत्येक वर्ष चैत्र शुक्ल पक्ष के तृतीय से शुरू होकर चैत्र पूर्णिमा के दिन संपन्न होता है इस पर्व में साल अर्थात सखुआ के वृक्ष का विशेष महत्व है। आदिवासियों की परंपरा के अनुसार इस पर्व के बाद नई फसल विशेष गेहूं की कटाई आरंभ हो जाती है। इस पर्व के साथ आदिवासियों का नव वर्ष शुरू होता है।
सरहुल दो शब्दों से मिलकर बना है सर और हुल। यहां पर सर का अर्थ सरई अर्थात सखुआ के फूल/फल से होता है। जबकि हुल अर्थ क्रांति से है इस प्रकार सखुआ के फूलों की क्रांति को सरहुल के नाम से जाना जाता है। सरहुल उरांव जनजाति का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। वे कृषि का अभ्यास करते हैं और सरनावाद(sarnaism) को अपने धर्म के रूप में मानते हैं। प्रकृति के बेहद करीब होने के कारण उरांव जनजाति पेड़-पौधों और प्रकृति मां की पूजा करती है।
सरहुल पर्व कब और कहां मनाया जाता है?
प्रकृति पर्व सरहुल वसंत ऋतु में मनाए जाने वाला आदिवासियों का प्रमुख त्योहार है। वसंत ऋतु में जब पेड़ पतझड़ में अपनी पुरानी पतियों को गिरा कर टहनियों पर नहीं पत्तियां लाने लगती है, तब सरहुल का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के तृतीय से शुरू होता है और चैत्र पूर्णिमा को समाप्त हो जाता है। अंग्रेजी माह के अनुसार यह पर्व अप्रैल में मुख्य रूप से मनाया जाता है। कभी-कभी यह पर्व मार्च के अंतिम सप्ताह में भी आता है।
सरहुल आदिवासियों द्वारा मनाया जाने वाला एक प्राकृतिक पर्व है। यह त्योहार झारखंड में प्रमुखता से मनाया जाता है। इसके अलावा मध्य प्रदेश ओडिशा पश्चिम बंगाल में भी आदिवासी बहुत क्षेत्रों में इसे बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इस पर्व में पूजा की अतिरिक्त नृत्य के साथ गायन का प्रचलन है।
सरहुल उत्सव की परंपराएं
सरहुल पर्व वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला यह त्योहार प्रकृति से संबंधित पर्व है। मुख्यतः यह फूलों का त्योहार है पतझड़ ऋतु के कारण इस मौसम में पेड़ों की टहनियों पर नई-नई पत्ते एवं फूल खिलते हैं। इस पर्व में तान की पेड़ों पर खेलने वाले फूलों का विशेष महत्व है। यह पर्व 4 दिनों तक मनाया जाता है जिसकी शुरुआत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीय से होती है।
सरहुल पर्व के अंतर्गत निम्नलिखित परंपराएं आदिवासियों द्वारा निभाई जाती है:
- सरहुल पर्व के पहले दिन मछली के अभिषेक किए हुए जल को घर में छिड़का जाता है। दूसरे दिन उपवास रखा जाता है तथा गांव का पुजारी जिसे पहन के नाम से जाना जाता है घर की छत पर साल के फूलों को रखता है। तीसरे दिन वाहन द्वारा उपवास रखा जाता है तथा पूजा स्थल पर सरई के स्कूलों की पूजा की जाती है साथ ही मुर्गी की बलि दी जाती है। तथा चावल और बलि की मुर्गी का मांस मिलाकर नामक खिचड़ी बनाई जाती है जिसे प्रसाद के रूप में गांव में वितरण किया जाता है। चौथे दिन गिडिवा नामक स्थान पर सरहुल फूल का विसर्जन किया जाता है।
- एक परंपरा के अनुसार इस पर्व के दौरान गांव का पुजारी मिट्टी के तीन पात्र लेता है और उसे ताजे पानी से भरता है। अगले दिन प्रातः पुजारी मिट्टी के 3 पात्रों को देखता है। यदि पात्रों से पानी का स्तर घट गया है तो वह अकाल की भविष्यवाणी करता है और यदि पानी का स्तर सामान्य रहा तो उसे उत्तम वर्षा का संकेत माना जाता है। सरहुल पूजा के दौरान ग्रामीणों द्वारा पूजा स्थान को घेरा जाता है।
- सरहुल में एक वाक्य प्रचलन में है; नाची से बांधी अर्थात जो नाचेगा वही बचेगा। ऐसी मान्यता है कि आदिवासियों का नृत्य ही संस्कृति है। इस पर्व में झारखंड और अन्य राज्यों में जहां यह पर्व मनाया जाता है। जगह-जगह नृत्य किया जाता है महिलाएं सफेद मैं लाल पाढ़ वाली साड़ी पहनती है और नृत्य करती हैं। सफेद पवित्रता और शीतलता का प्रतीक है जबकि लाल संघर्ष का।
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सरहुल से जुड़ी प्राचीन कथा
सरहुलपर्व से जुड़ी कई प्राचीन कथाएं हैं उनमें से महाभारत से जुड़ी एक कथा है। इस कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध चल रहा था तब आदिवासियों ने युद्ध में कौरवों का साथ दिया था जिस कारण कई मुंडा सरदार पांडवों के हाथ मारे गए थे। इसलिए उनके शवों को पहचानने के लिए उनके शरीर को साल के वृक्षों के पत्तों और शाखाओं से ढका गया था। इस युद्ध में ऐसा देखा गया था कि जो 6 साल के पत्तों से ढके गए हैं वह सब पढ़ने से बच गए थे और ठीक से पर जो दूसरे पत्तों या अन्य चीजों से ढके थे वह सब पड़ गए थे। ऐसा माना जाता है कि इसके बाद आदिवासियों का विश्वास साल पेड़ों और पत्तों पर बन गया था जो सरहुल के रूप में माने जाते हैं।
सरहुल त्योहार की तैयारियां
सरहुल त्योहार मनाने के लिए आदिवासियों द्वारा महीनों पहले से तैयारी प्रारंभ कर दी जाती है। आदिवासी चाहे निकट के नगरों में हों या सुदूर प्रांतों में सरहुल त्योहार के अवसर पर वे अपने-अपने गांव अवश्य पहुंच जाते हैं। लड़कियां अपनी ससुराल से मायके लौट आती हैं। वे अपने घरों की लिपाई पुताई करती हैं और दीपावली की तरह हाथी-घोड़े तथा फूल-फल आदि के चित्रांकन से घरों की सजावट करती हैं। इस दिन बच्चे, बूढ़े और जवान सभी आदिवासी नये-नये कपड़े धारण करते हैं। आदिवासी युवतियां नये वस्त्रों के साथ-साथ फूलों से भी अपना श्रृंगार करती हैं।
सरहुल उरांव, मुंडा और जनजातियों का एक महत्वपूर्ण त्योहार है। झारखंड की एक और बड़ी जनजाति, संथाल भी इस त्योहार को “फूलों के त्योहार” के रूप में मनाते हैं। सरहुल के अलावा, झारखंड में मनाए जाने वाले कुछ प्रमुख त्यौहार हैं जो कर्म पूजा, जावे, हल पुण्य, रूपिनी, भगत परब, बंदना और जानी-शंकर हैं। सरहुल को नए साल की शुरुआत के रूप में मनाया जाता है।
सरहुल उत्सव तिथि (Sarhul 2023 Date)
वर्ष 2023 में 24 March Friday के दिन सरहुल उत्सव झारखंड में मनाया जाएगा। झारखंड में लगभग सभी आदिवासी इलाकों में यह त्यौहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाएगा और इसकी तैयारियां पहले से ही लोग आरंभ कर देते हैं।